Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



154. विराम – सन्धि : वैशाली की नगरवधू

आज वैशाली के संथागार में फिर उत्तेजना फैली थी । महासमर्थ मागध सैन्य चमत्कारिक रूप से पराजित हुई थी । लिच्छवियों के मुंह यद्यपि उदास थे और हृदय उत्साह - रहित , तथा वह उमंग और तेज उनमें न था , फिर भी आज की इस कार्रवाई में एक प्रकार की उत्तेजना का यथेष्ट आभास था । छत्तीसों संघ - राज्यों के राजप्रमुख , अष्टकुल के सम्पूर्ण राज- प्रतिनिधि इस विराम- सन्धि उद्वाहिका में योग दे रहे थे। गणपति सुनन्द और लिच्छवि महाबलाधिकृत सुमन अति गम्भीर थे। प्रमुख सेनानायक भी सब उपस्थित थे।

जब सेनापति सिंह ने संथागार में प्रवेश किया तब चारों ओर से हर्षनाद उठ खड़ा हुआ। महाबलाधिकृत सुमन ने सिंह का अभिनन्दन करते हुए उद्वाहिका का प्रारम्भ किया । उन्होंने कहा

“ भन्तेगण , आज हमें सौभाग्य ने विजय दी है । अब शत्रु सन्धि चाहता है , आज का विचारणीय विषय यह है कि किन नियमों पर सन्धि की जाए ? ”

मल्लकोल - राजप्रमुख ने उदग्र होकर कहा - “ सन्धि नहीं भन्ते सेनापति , हम मगध साम्राज्य को समाप्त किया चाहते हैं । वह सदैव का हमारे गण-संघों के मार्ग का शूल है । हमारा प्रस्ताव है कि सुअवसर से लाभ उठाया जाए और मुख्य मगध , अंग दक्षिण , अंग उत्तर - सबको वज्जीसंघशासन में मिला लिया जाए अथवा वहां हमें एक स्वतन्त्र गणशासन स्थापित कर देना चाहिए ।

“ किन्तु आयुष्मान् मगध और अंग में वज्जियों के अष्टकुल नहीं हैं । न वहां केवल मल्ल , कोलिय और कासी हैं । हम उन पर उसी प्रकार शासन कर सकते हैं जैसे वज्जी में अलिच्छवियों पर करते हैं । ”

गणपति सुनन्द ने कहा -

“ भन्तेगण सुनें , आयुष्मान् मगध में एक स्वतन्त्र गणतंत्र स्थापित करना चाहता है। गण- शासन का मूल मन्त्र गण - स्वातन्त्र्य है; यह शासन नहीं, व्यवस्था है जिसका दायित्व प्रत्येक सदस्य पर है। वास्तविक अर्थों में गणतन्त्र में राजा भी नहीं है। प्रजा भी नहीं है। गण का समूर्ण स्वामी गण है और गणपरिषद् उसका प्रतिनिधि । हमारे अष्टकुल के वज्जीगण में दास भी हैं , लिच्छवि भी हैं , अलिच्छवि भी हैं , आगन्तुक भी हैं । यद्यपि इन सबके लिए हमारा शासन उदार है, फिर भी इन अलिच्छवि जनों के पास हमारे शासन -निर्णय पर प्रभाव डालने का कोई साधन नहीं है । वे केवल अनुशासित हैं । यह हमारे वज्जी - गणतन्त्र में एक दोष है, जिसे हम दूर नहीं कर सकते , न उन्हें लिच्छवि ही बना सकते हैं । उनमें कोट्याधिपति सेट्रि हैं , जिनका वाणिज्य सुदूर यवद्वीप , स्वर्ण- द्वीप और पश्चिम में ताम्रपर्णी, मिस्र और तुर्क तक फैला है। हमारे गण की यह राजलक्ष्मी है। इसी प्रकार कर्मान्त शिल्पी और ग्राम - जेट्ठक हैं । क्या हम उनके बिना रह सकते हैं ? ये सब अलिच्छवि हैं और ये सभी वज्जी गणतन्त्र अनुशासित हैं । बहुधा हमें इन अलिच्छवियों द्वारा असुविधाएं उठानी पड़ती हैं । अब यदि हम अंग और मगध साम्राज्य को वज्जी - शासन में मिलाते हैं , तो हमारी ये कठिनाइयां असाधारण हो जाएंगी और हमारी गणप्रणाली असफल हो जाएगी ।

“ यदि आप किसी लिच्छवि जन को वहां का शासक बनाकर भेजेंगे, तो वह प्रजा के लिए और प्रजा उसके लिए पराई होगी । यदि कोई अलिच्छवि जन वहां का शासक बन जाएगा तो फिर दूसरा मगध साम्राज्य तैयार समझना होगा । वह जब प्रभुता और साधन सम्पन्न हो जाएगा तो हम उसे सहज ही हटा नहीं सकेंगे। ”

“ परन्तु भन्ते , हम इन आए-दिन के आक्रमणों को भी तो नहीं सह सकते ? ” एक मल्ल राजपुरुष ने कहा ।

“ भन्ते राजप्रमुख , इससे भी गम्भीर बात और है । यदि एक बार भी मगध -सम्राट जीत जाएगा तो वह निस्सन्देह हमारे गणराज्य को नष्ट कर देगा और हमारी गण ही की अलिच्छवि प्रजा समान अधिकार मांगेगी । इसका अभिप्राय स्पष्ट है कि दोनों अधिकार च्युत होंगे और गण -स्थान पर साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। ”

“ यही सत्य है भन्ते सेनापति , अर्थात् हमारी विजय से उनकी कुछ हानि नहीं है और उनकी एक ही विजय हमें समाप्त कर सकती है। ”

“ यही तथ्य है भन्ते , राजप्रमुख!

“ तब तो फिर इस पाप की जड़ को उन्मूलित करना ही आवश्यक है। ”

“ किन्तु कैसे ? हमें कम - से -कम एक लिच्छवि को बिम्बसार अंग - मगध का अधिपति बनाना होगा जो इस श्रेणिक बिम्बसार से अधिक भयंकर होगा । उससे गण लड़ भी तो न सकेगा । ”

“ क्यों न अंग - मगध को उनकी स्वतन्त्रता फिर दे दी जाए ? ”

“ यह कठिन नहीं है । पर प्रजा इसे स्वीकार कैसे करेगी ? उसका दायित्व किस पर होगा ? क्या आप समझते हैं मागध गण और आंगगण स्थापित होना सहज है ? ”

“ क्या हानि है! पश्चिम में भी तो बहुत गण हैं । क्यों न हम प्राची में गणसंख्या बढ़ाएं ? इससे कभी - कभी युद्ध भले ही हो , पर उससे गण -नाश का भय नहीं रहेगा। ”

“ परन्तु आयुष्मान, यह सम्भव नहीं है। हम अंग - मगध की प्रजा को स्वतन्त्रता नहीं दे सकते । अंगराज और मगधराज की स्थापना तो सहज है, पर आंग - गण और मागध - गण की नहीं । ”

“ क्यों भन्ते गणपति ? ”

“ इसलिए आयुष्मान्, कि इसके लिए एक रक्त और एक श्रेणी चाहिए। जहां एकता का भाव हो । मगध में अब ऐसा नहीं है । यद्यपि पहले मागध एक - रक्त थे। परन्तु अब वह इतने दिन साम्राज्यवादी रहकर राष्ट्र बन गया है। अब मागध एक जाति नहीं रही। अब तो वहां के ब्राह्मण, क्षत्रिय , आर्य भी अपने को मागध कहते हैं , मागध का अर्थ है, मागध साम्राज्य का विषय; मागध में ब्राह्मण- क्षत्रिय ही नहीं , मागध शिल्पी , मागध चाण्डाल भी हैं । ये अब असम वर्ग हैं । इनकी अपनी श्रेणियां हैं । ये कभी भी एक नहीं हो सकते । वह श्रेणियों की खिचड़ी है, वहां गणतन्त्र नहीं चल सकेगा। ”

“ ऐसा है, तब तो नहीं चल सकता। ”

अब सिंह सेनापति ने कहा “ भन्ते राजप्रमुख गण, मैं इस बात पर विचार करता हूं कि मनुष्य - शरीर की भांति राजवंश का भी काल है, राजवंशों का तारुण्य अधिक भयानक होता है। वृद्धावस्था उतनी नहीं। तीन - चार ही पीढ़ियों में राजवंश का तारुण्य जाता रहता है। फिर उसका वार्धक्य आता है । तब कोई नया राजवंश तारुण्य लेकर आता है । भन्ते , शिशुनाग राजवंश का भी यह वार्धक्य है । यदि इसे हम समाप्त कर देते हैं तो इसका अभिप्राय यह है कि कोई तरुण राजवंश अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य लेकर हमारे सामने आएगा। भन्तेगण , हमें भेड़िये की मांद छोड़कर सिंह की मांद में नहीं धंसना चाहिए। फिर भी एक बात है भन्ते , मागध राज्य को परास्त करना और उसे उन्मूलन करना एक सहज बात नहीं है । फिर भी हम परास्त कर चुके । हमारी प्रतिष्ठा बच गई, परन्तु इसमें हमारी सम्पूर्ण सामर्थ्य व्यय हो गई है, इस युद्ध में दस दिनों में हमारे गण ने ग्यारह लाख प्राणों की आहुति दी है । धन , जन और सामर्थ्य के इस क्षय की पूर्ति हमारा गण आधी शताब्दी तक भी कर सकेगा या नहीं , यह नहीं कहा जा सकता।....

“ हमारी सेनाएं राजगृह के आधे दूर तक के राजमार्ग और गंगा - तट पर फैली हुई हैं । हमने मगध सेना का सम्पूर्ण आयोजन अधिकृत कर लिया है, परन्तु भन्तेगण, गंगा - तट से आगे मागधों के प्रबल और अजेय मोर्चे और सैनिक दुर्ग हैं । राजधानी राजगृह भी अत्यन्त सुरक्षित है । नालन्द अम्बालष्टिका की दो योजन की भूमि पर शत्रु की बहुत भारी सैनिक तैयारी अभी भी अक्षुण्ण है । इन सबको विजय करने के लिए हमें और ग्यारह लाख प्राणों की आहुति देनी होगी । क्या गण इसके लिए तैयार है ? फिर और एक बात है! ”

“ वह क्या ? ”

“ हमें राजगृह का दुर्गम दुर्ग भी जय करना होगा । बिना ऐसा किए मगध का पतन नहीं हो सकता । परन्तु भन्तेगण , आप भलीभांति जानते हैं , राजगृह का दुर्ग सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में दुर्भेद्य है। उसके सैनिक महत्त्व को मैं जानता हूं। यह उसका मानचित्र उपस्थित है । यदि गंगा - तट की राजगृह की भूमि जय करने में हमें महीनों लगेंगे तो राजगृह को जय करने में वर्षों लगेंगे। यह अभूतपूर्व नैसर्गिक दुर्ग वैभार , विपुल , पाण्व आदि दुर्गम पर्वत श्रृंखलाओं से आवेष्टित और सुरक्षित है , इन पहाड़ों के ऊपर बहुत मोटी शिलाओं के प्राकार , विशाल पत्थरों की चुनी हुई प्राचीर इस छोर से उस छोर तक मीलों दूर फैली हुई है। केवल दक्षिण ओर एक संकरी गली है, जिसमें होकर दुर्ग में जाया जा सकता है । इन प्राचीरों में सुरक्षित बैठकर एक - एक धनुर्धर सौ - सौ लिच्छवियों को अनायास ही मार सकता है। इस गिरि - दुर्ग में सुमागध सरोवर है , जिसके कारण दुर्ग घेरने पर भी वर्षों तक अन्न - जल की कमी बिम्बसार को नहीं रहेगी। फिर पांचों पर्वतों पर खिंची दैत्याकार प्राचीरों को भंग करने का कोई साधन हमारे पास नहीं है ।

“ भन्ते , इस परिस्थिति में हम यदि आगे युद्ध में बढ़ते हैं तो हमारी अपार जनहानि होगी । इतने जन अब हमारे अष्टकुल में नहीं हैं । न हमारे छत्तीसों गणराज्यों में हैं । यदि तीन पीढ़ियों तक अष्टकुल -गणराज्य की प्रत्येक स्त्री बीस-बीस पुत्र उत्पन्न करे तो हो सकता है । सो भन्तेगण, यदि हमने राजगृह जय करने का साहस किया तो सफलता तो संदिग्ध है ही , अपार धन - जन की हानि भी निश्चित है। ”

गणपति सुनन्द ने कहा - “ भन्तेगण, आपने आयुष्मान् सिंह का अभिप्राय सुना, हम अपनी स्थिति सुदृढ़ रखना पहले चाहेंगे। इसलिए अब प्रश्न है कि शत्रु से सन्धि की जाय या नहीं। ”

“ ऐसी दशा में सन्धि सर्वोत्तम है, विशेषकर जबकि शत्रु अपने हाथ में है तथा सन्धि के नियम भी हमारे ही रहेंगे। सबने एकमत होकर कहा ।

“ तो सन्धि में तीन बातों पर विचार करना है : एक यह कि शत्रु का सैनिक - बल इतना दुर्बल कर दिया जाय कि वह चिरकाल तक हमारे विरुद्ध शस्त्र न उठा सके। ”

“ सदा के लिए क्यों नहीं ? ”राजप्रमुख ने कहा ।

“ यह देवताओं के लिए भी शक्य नहीं है, आयुष्मान् ! दूसरे शत्रु यथेष्ट युद्ध- क्षति दे ।

“ तीसरे सुदूर -पूर्वी तट हमारे वाणिज्य के लिए उन्मुक्त रहे। ”

छन्द लेने पर प्रस्ताव सर्व- सम्मति से स्वीकार हुआ ।

सन्धि की सब शर्तों पर विचार करने , हस्ताक्षर करने तथा शत्रु से आवश्यक मामले तय करने का अधिकार सिंह को दिया गया ।

यथासमय सन्धि हो गई। वज्जी - भूमि में इसके लिए सर्वत्र गणनक्षत्र मनाया गया । वैशाली के खण्डहर ध्वजाओं से सजाए गए। भग्न द्वारों पर जलपूरित मंगल कलश रखे गए । रात को टूटी और सूनी अटारियों में दीपमालिका हुई ।

वैशाली के इस दिग्ध समारोह में भाग नहीं लिया अम्बपाली ने । उनका प्रासाद सजाया नहीं गया , उस पर तोरण - पताकाएं नहीं फहराई गईं और दीपमालिका नहीं की गई । अपितु सप्तभूमि - प्रासाद का सिंह- द्वार और समस्त प्रवेश द्वार बन्द कर दिए गए । समस्त आलोक - द्वीप बुझा दिए गए। उस आनन्द और विजयोत्सव में राग -रंग के बीच देवी अम्बपाली और उसका विश्व -विश्रुत प्रासाद जैसे चिरनिद्रा में सो गया युग - युग के लिए!

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